खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है

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सामाजिक समूह का वर्गीकरण
सामाजिक समूह का वर्गीकरण
सामाजिक समूह का अर्थ-सामाजिक समूह से तात्पर्य कुछ व्यक्तियों में शारीरिक समीपता होना नहीं हैं, बल्कि समूह की प्रमुख विशेषता कुछ व्यक्तियों द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करना अथवा एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करना है। मैकाइबर के अनुसार-"सामाजिक समूह से हमारा तात्पर्य मनुष्य के किसी भी ऐसे संग्रह से है,जो एक-दूसरे से सामाजिक सम्बन्धों द्वारा बंधे हो।"
सामाजिक समूह के खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है निर्माण का आधार-सामाजिक समूह के निर्माण के आधार भिन्न-भिन्न है। समूह निर्माण के आधार में हम लिंग-भेंद, व्यक्तिगत रुचि, मनोवृत्तियां, धर्म य व्यवसाय आदि का उल्लेख कर सकते हैं। सामाजिक समूह का वर्गीकरण-विभिन्न समाज शास्त्रीयों ने समूह का जो वर्गीकरण किया है, उसका वर्णन इस प्रकार है। सामान्य वर्गीकरण-सामाजिक समूहों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है।
जैसे-1. स्वार्थों की प्रक्रिया, 2. संगठन की मात्रा, 3. स्थायित्व की खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है मात्रा, 4 सदस्यों के बीच आपसी सम्बन्धों के प्रकार आदि।
(1) मैपाइनर एवं पेज द्वारा किया गया वर्गीकरण-मैकाइवर एवं पेज ने समस्त समूहों को तीन वर्गों में विभक्त किया है (क) क्षेत्रीय समूह-इन समूहों में सदस्यों के सम्पूर्ण हित व्याप्त होते हैं तथा इनका एक निश्चित क्षेत्रीय आधार होता है। सभी समुदाय इस श्रेणी में आते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य जाति, गांव, नगर और राष्ट्र इसी प्रकार के समूहों के उदाहरण है। (ख) हितों के प्रति चेतना एवं असंगठित समूह-इस कोटि में सामाजिक वर्ग, जाति, प्रतिस्पर्धा वर्ग, शरणार्थी समूह, राष्ट्रीय समूह. प्रजातीय समूह आते हैं इनमें स्वार्थो के प्रति चेतना अवश्य होती खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है है किन्तु इनका संगठन निश्चित प्रकार का होता है भीड़ एवं श्रोता समूह तो हितों के लिए चिंतन आवश्यक होते हैं, किन्तु इनका संगठन तो पूर्णतया अस्थिर ही होता है। (ग) हितों के प्रति चेतना एवं संगठित समूह-इसमें आपने परिवार पड़ोस, खेल का समूह आदि को सम्मिलित किया है। इसी प्रकार के दूसरे राज्य, चर्च, आर्थिक व श्रमिक समूह आदि होते हैं जिसमें सदस्य संख्या कहीं अधिक होती है किन्तु फिर भी इन दोनों प्रकार के समूहों में स्वार्थ एवं हितों के साथ ही एक निश्चित संगठन भी पाया जाता है। इस प्रकार मैकाइवर और पेज के अनुसार सामाजिक समूहों के वर्गीकरण में सामाजिक सम्बन्धों की प्रगति मुख्य आधार होता है।
(2) गिलिन और गिलिन के अनुसार वर्गीकरण-इनका वर्गीकरण इस प्रकार है (क) रक्त सम्बन्धी समूह-इनके अन्तर्गत आपने परिवार एवं जाति को सम्मिलित किया है। (ख) शारीरिक विशेषता-सम्बन्धी समूहः-जैसे लिंग, आयु, प्रजाति आदि। (ग) क्षेत्रीय समूह-जैसे जनजाति, राज्य एवं राष्ट्र। (घ) अस्थाई समूह-जैसे भीड़भाड़ एवं श्रोता समूह। (ङ) स्थाई समूह-जैसे खानाबदोश जत्थे, गांव एवं कस्बे तथा शहर इस कोटि में आते हैं। (च) सांस्कृतिक समूह-इसमें आपने विभिन्न आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मनोरंजन समूह को सम्मिलित किया गया है।
(3) सुमन के अनुसार समूहों का वर्गीकरण-सुमनर ने समूहों को निम्न दो भागों में वर्गीकृत किया है- (क) अन्तः समूह- यह एक ऐसी समिति का रूप होता है जिसके प्रति हम परस्पर अधीनता दृढ़ता वफादारी, मित्रता एवं सहयोग की भावना का अनुभव करते हैं। इसके सदस्य अपने को हम का भावना से सम्बन्धित मानते हैं और अपने को मेरा समूह,हमारा उद्देश्य आदि शब्दों के द्वारा सम्बोधित करते हैं। इनके बीच आमने-सामने के सम्बन्धों की प्रधानता होती है। अन्तःसमूह के सदस्य अपने प्रति बड़ी सहानुभूति खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है एवं प्रेम की भावना का प्रदर्शन करते हैं, जबकि अपने बाहर के व्यक्तियों को प्रायः गन्दे एवं तुच्छ नामों से सम्बोधित करते हैं।
(क) वाह्य समूह-यह एक ऐसी समिति मानी जाती है जिसके प्रति हम घृणा, नापसंदगी भय, स्पर्धा तथा अरुचि आदि की भावना प्रदर्शित करते हैं। इस समूह की एक आवश्यक विशेषता अन्तर की भावना होती है किन्तु एक यात यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि जो एक व्यक्ति के लिए अन्तः समूह है वही दूसरे के लिये बाह्य समूह है। इसकी सीमायें स्थान और समय के लिए है। दूसरी जनजाति बाह्य समूह है जबकि राष्ट्र की बात करते समय एक राष्ट्र के सभी सदस्य अंतः समूह एवं दूसरे राष्ट्र के लोग बाह्य समूह कहें जायेंगे।
4. कूले का वर्गीकरण-चार्ल्स कुले ने सामाजिक समूह का सबसे अच्छा और वैज्ञानिक व्याकरण प्रस्तुत किया है। कूले ने समूहों तथा (2) द्वितीयक समूह। को दो वर्गों में विभाजित किया है- प्राथमिक समूह।
(1) प्राथममिक समूह(Primary Groups): चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "प्राथमिक समूहों से मेरा तात्पर्य उन समूहों से है जिसकी विशेषता, घनिष्ठ आमने-सामने के सम्बन्ध और सहयोग से होती है।" इसके सभी सदस्यों में हम की भावना की प्रधानता होती है। इसे सदस्य की संख्या द्वैतीयक समूह के सदस्यों से कम होती है जिसके कारण पड़ोस तथा क्रीड़ा समूह को प्राथमिक समूह कहकर पुकारा है। इन समूहों का सम्बन्ध व्यक्ति के हास्य काल से अधिक होता है। यही कारण है कि व्यक्तित्व के विकास में इनका योगदान प्रशसनीय रहता है। ये बच्चे में स्नेह त्याग, सहानुभूति ईमानदारी एवं स्वामिभक्ति की भावना का सूत्रपात करते है। इसलिए कुल ने इन्हें मानव स्वभाव की वृक्षारोपिणी' कहा है कूले इन समूहाँ को सार्वभौमिक मानते हैं क्योंकि परिवार, पड़ोस तथा खेल के समूह अस्तित्व प्रत्येक स्थान एवं काल में मिलता है। इस समूह की प्रकृति स्थाई होती है, सदस्यों की संख्या कम होती है, आमने-सामने के सम्बन्ध एवं निष्ठा होती है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के समूहों की आन्तरिक विशेषताओं के समान व्देश्य, वैयक्तिक सम्बन्ध सर्वांगीण सम्बन्धों की स्वाभाविकता को सम्मिलित कर सकते हैं।
(2) द्वैतीयक समूह (Secondary Group) :- इनसे कूले का तात्पर्य ऐसे समूहो से हैं। जिसमें प्राथमिक समूह से भिन्न विशेषतायें होती है इसके सदस्यों में पारस्परिक घनिष्ठता, प्राथमिक समूहों से कहीं कम होती है क्योंकि इसके सदस्य दूर दूर फैले हो सकते हैं जो संचार के सालों से एक-दूसरे के साथ सम्पर्क स्थापित करते है इसके अतिरिक्त इसके सदस्यों की संख्या कहीं अधिक होती है। इनमें भारी संख्या, अल्प अवधि, कम घनिष्ठता, शारीरिक दूरी की प्रधानता पायी जाती है । कुले ने लिखा है कि यह एक ऐसा समूह है जिसमें घनिष्ठता का अभाव होता है और आमतौर से अधिकतर अन्य प्राथमिक एवं अर्ध प्राथमिक विशेषताओं का भी अभाव रहता है। चूँकि इसका निर्माण विशेष हितों या स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता है और सदस्यों के सम्बन्ध आंशिक होते हैं इसीलिए इन्हें विशेष स्वार्थ समूह भी कहा जाता है। सामाजिक कर्म, राष्ट्र, स्थानीय समुदाय और प्रादेशिक समूह, जनता संस्थात्मक समूह एवं कारपोरेशन इसी कोटि के समूह है। निष्कर्षः-इस प्रकार विभिन्ने वर्गीकरणों में चार्ल्स कुले का वर्गीकरण सबसे सुन्दर और वैज्ञानिक है। अन्य विद्वानों के वर्गीकरण कुल के वर्गीकरण प्राथमिक समूह और द्वैतीयक समूह में आत्मसात् हो गये है।
Nipat (Particle)-निपात
संसार की विभिन्न भाषाओं में अनेक दृष्टियों से शब्दों का वर्गीकरण किया गया है। भारतवर्ष में शब्दों का प्राचीनतम वैज्ञानिक वर्गीकरण यास्क मुनि का माना जाता है। इसके अनुसार शब्द चार प्रकार के खातों में खतियाये गये हैं।
'चत्वारि पदजातानि नमाख्याते चोपसर्गनिपातश्च'
नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात। आजतक जितने भी शब्द-वर्गीकरण किये गये हैं उनमें इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
''भाषा में दो तरह के शब्द प्रमुख है- नाम और आख्यात- संज्ञाएँ और क्रियाएँ। दूसरे दर्ज पर हैं उपसर्ग और निपात (या अव्यय)। नाम खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है और आख्यात स्वतंत्र चलते हैं और उपसर्ग, निपात इनकी सेवा में रहते हैं।''- ''हिन्दी शब्दानुशासन'' श्री किशोरीदास वाजपेयी''
निपात ऐसा सहायक शब्द भेद है जिसमें वे शब्द आते हैं जिनके प्रायः अपने शब्दावलोसंबंधी तथा वस्तुपरक अर्थ नहीं होते हैं।'' यथा- तक, मत, क्या, हाँ, भी, केवल, जी, नहीं, न, काश।
अन्य शब्द भेदों से निपात का इस बात में अन्तर है कि अन्य शब्द भेदों का अर्थात संज्ञाओं, विशेषणों, सर्वनामों, क्रिया-विशेषणों आदि का अपना अर्थ होता है किन्तु निपातों का नहीं। वाक्य को अतिरिक्त भावार्थ प्रदान करने के लिए निपातों का प्रयोग निश्चित शब्द, शब्द-समुदाय या पूरे वाक्य में होता है।
ये सहायक शब्द होते हुए भी निश्चित वाक्य नहीं हो सकते। वाक्य में इनके प्रयोग से उस वाक्य का अर्थ प्रभावित होता है। निपात वाक्य में निम्नलिखित कार्य करते हैं।
निपात के प्रमुख कार्य
प्रश्न- जैसे- क्या वह विद्यालय गया था ?
अस्वीकृति- जैसे-वह घर पर नहीं है।
विस्मयादिबोधक- जैसे- कैसी सुहावनी रात है।
किसी शब्द पर बल देना- जैसे- मुझे भी इसका पता है।
यास्क ने निपात के तीन भेद माने है-
(1) उपमार्थक निपात : यथा- इव, न, चित्, नुः
(2) कर्मोपसंग्रहार्थक निपात : यथा- न, आ, वा, ह;
(3) पदपूरणार्थक निपात : यथा- नूनम्, खलु, हि, अथ।
निपात के प्रकार
निपात के नौ प्रकार होते हैं-
(1) स्वीकारात्मक निपात- हाँ, जी, जी हाँ। ये सब निपात स्वीकृति को व्यक्त करते हैं तथा सदैव स्वीकारार्थक उत्तर के आरम्भ में आते हैं।
प्रश्न- तुम विद्यालय जाते हो ?
उत्तर- जी।
प्रश्न- आप घर जा रहे हैं ?
उत्तर- जी हाँ।
जी तथा जी हाँ निपात विशेष आदरसूचक स्वीकारार्थक उत्तर के समय प्रयुक्त होते हैं।
(2) नकारात्मक निपात- नहीं, जी नहीं।
प्रश्न: तुम्हारे पास यह कलम है ?
उत्तर- नहीं।
(3) निषेधात्मक निपात- मत।
मत- आज आप मत जाइए। मुझे अपना मुँह मत दिखाना।
(4) आदरार्थक निपात- क्या, न।
क्या- तुम्हें वहाँ क्या मिलता है ?
न- तुम अँगरेजी पढ़ना नहीं जानते हो न ?
(5) तुलनात्मक- सा।
सा- इस लड़के सा पढ़ना कठिन है।
(6) विस्मयार्थक निपात- क्या, काश।
क्या- क्या सुन्दर लड़की है !
काश- काश ! वह न गया होता !
(7) बलार्थक या परिसीमक निपात- तक, भर, केवल, मात्र, सिर्फ, तो, भी, ही।
तक- मैंने उसे देखा तक नहीं। हमने उसका, नाम तक नहीं सुना।
भर- मेरे पास पुस्तक भर है। उसको अपनी कॉपी भर दे दो।
केवल- वह केवल सजाकर रखने की वस्तु है।
मात्र- वह मात्र सुन्दर थी, शिक्षित तो नहीं थी।
ही- उसका मरना ही था कि घर-का-घर बर्बाद हो गया।
भी- मैं भी यहीं रहता हूँ।
(8) अवधारणबोधक निपात- ठीक, लगभग, करीब।
ठीक- ठीक समय पर पहुँचा। ठीक पाँच हजार रुपये उसने दिये।
लगभग- लगभग पाँच लाख विद्यार्थी इस वर्ष प्रवेशिका की परीक्षा दे चुके हैं।
करीब- इस समय करीब पाँच बजे हैं।
(9) आदरसूचक निपात- जी।
जी- यह निपात व्यक्तिवाचक या जातिवाचक नाम, उपाधि तथा पद आदि सूचित करने वाले संज्ञा शब्दों के बाद प्रयुक्त होता है। जैसे- इन्दिरा जी, गुरुजी, डॉक्टर जी, वर्माजी।
अपराध का अर्थ , परिभाषा तथा अपराध के प्रकार एवं चरण (Concept of crime in hindi)
अपराध क्या है |
अपराध अपराध वह कार्य या कार्यों का समूह है जिससे राज्य की शांति भंग होती है या हिंसा उत्पन्न होती है या साधारण जन–जीवन दूषित होता है और जिसके लिए विधि में दंड की व्यवस्था की गई। अपराध राज्य के प्रति भी हो सकता है और व्यक्ति के विरुद्ध भी हो सकता है।
अपराध की परिभाषा
भारतीय दंड संहिता की धारा 40 में अपराध को परिभाषित किया गया है ," जिसके अनुसार इस एक्ट में दिया गया कोई भी कार्य अपराध होगा।"
किंतु अनेक विधिवेत्ताओं का यह मानना है कि अपराध की एक समुचित परिभाषा देना एक कठिन कार्य है क्योंकि इसका दायरा इतना व्यापक है जिसको एक परिभाषा में समझना संभव ही नहीं है अपराध के संबंध में कुछ विधिवेत्ताऔं की परिभाषा निम्नलिखित है–
According to Blackstone ," अपराध एक ऐसा कृत्य या कृत्य का लोप है,जो सार्वजनिक विधि के उल्लंघन में किया गया हो।"
According to Kenny ," अपराध उन अवैध कार्यों को कहते हैं जिन के बदले में दंड दिया जाता है और वह क्षम्य नहीं होते और यदि क्षम्य होते भी हैं तो राज्य के अन्य किसी को क्षमा प्रदान करने की अधिकारिता नहीं होती है।"
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(n) में भी अपराध को परिभाषित किया गया है ,"जिसके अनुसार ऐसा कोई कार्य जो किसी भी विधि में दंडनीय है अपराध कहलाता है।"
अपराध की उपयुक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी कार्य जो विधि के विरुद्ध है और जिसके लिए दंड संहिता में या अन्य किसी भी विधि में दंड की व्यवस्था की गई है अपराध कहलाता है।
अपराध के प्रकार
- संज्ञेय अपराध
- असंज्ञेय अपराध
- राज्य के विरुद्ध अपराध
- मानव शरीर के विरुद्ध अपराध
- संपत्ति के विरुद्ध अपराध
अपराध का क्या अर्थ होता है? अपराध के चरण क्या है? |
अपराध के चरण/स्तर
जब कोई अपराध कारित होता है तब अनेक चरणों से होकर अपराध का रूप लेता है अपराध के मुख्य चार चरण होते हैं वह है –आशय ,तैयारी ,प्रयास और अपराध का निष्पादन इनके बारे में विस्तृत उल्लेख निम्नलिखित है–
(1) आशय (Intention)–
अपराध किए जाने की प्रथम अवस्था आशय है । प्रत्येक कार्य के पीछे व्यक्ति की भावनाएं निहित होती है , यह एक मानसिक अवस्था है , जिसके लिए दंड संहिता में कोई दंड उल्लेखित नहीं है। अर्थात आशय जब तक किसी व्यक्ति के मन में रहता है वह दंडनीय नहीं है । इसे दंड संहिता की धारा 34 में परिभाषित किया गया है।
(2) तैयारी (Prepration)–
यह अपराध कारित किए जाने की दितीय अवस्था है । इस चरण में व्यक्ति अपने आशय को पूर्ण करने के लिए कुछ तैयारी करता है ,जैसे हथियारों का इंतजाम करना आदि।
Example – A एक व्यक्ति ,दूसरे व्यक्ति B के घर में चोरी छुपे घुसने का आशय करता है , और इसके लिए एक सीढ़ी का इंतजाम करता है । तो यहां A तब तक अपराध का दोषी नहीं माना जाएगा ,जब तक वह सीढ़ी का उपयोग करके B के घर में प्रवेश नहीं करता है।
- भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने के आशय से आयुध आदि संग्रह करना (धारा 122),
- डकैती करने के लिए तैयारी करना (धारा 399) ।
(3) प्रयत्न (Attempt)–
(4) अपराध का निष्पादन (Accomplishment)–
अपराध का आखरी चरण है अपराध का निष्पादन । अपराध कारित करने के लिए व्यक्ति सबसे पहले उसका आशय या विचार करता है, फिर तैयारी करता है जो सामान्यतः दंडनीय नहीं है। इन दोनों चरणों के बाद व्यक्ति अपराध का प्रयत्न करता है और यदि प्रयत्न सफल हो जाता है, तो वह कार्य पूर्णअपराध का रूप ले लेता है और उसी प्रकार दण्डनीय होता है, जिस प्रकार उस अपराध के लिए दंड संहिता में विहित किया गया है।
अब यह भली-भांति स्पष्ट है कि अपराध क्या है और अपराध के चरण कितने होते हैं ।कोई भी कार्य एकदम से अपराध का रुप नहीं लेता है , उसके लिए कुछ अवस्थाएं होती है जो है ,आशय , तैयारी , प्रयत्न और अपराध का निष्पादन । कोई भी अपराध इन चरणों के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है।
अपराध का अर्थ , परिभाषा तथा अपराध के प्रकार एवं चरण (Concept of crime in hindi)
अपराध क्या है |
अपराध अपराध वह कार्य या कार्यों का समूह है जिससे राज्य की शांति भंग होती है या हिंसा उत्पन्न होती है या साधारण जन–जीवन दूषित होता है और जिसके लिए विधि में दंड की व्यवस्था की गई। अपराध राज्य के प्रति भी हो सकता है और व्यक्ति के विरुद्ध भी हो सकता है।
अपराध की परिभाषा
भारतीय दंड संहिता की धारा 40 में अपराध को परिभाषित किया गया है ," जिसके अनुसार इस एक्ट में दिया गया कोई भी कार्य अपराध होगा।"
किंतु अनेक विधिवेत्ताओं का यह मानना है कि अपराध की एक समुचित परिभाषा देना एक कठिन कार्य है क्योंकि इसका दायरा इतना व्यापक है जिसको एक परिभाषा में समझना संभव ही नहीं है अपराध के संबंध में कुछ विधिवेत्ताऔं की परिभाषा निम्नलिखित है–
According to Blackstone ," अपराध एक ऐसा कृत्य या कृत्य का लोप है,जो सार्वजनिक विधि के उल्लंघन में किया गया हो।"
According to Kenny ," अपराध उन अवैध कार्यों को कहते हैं जिन के बदले में दंड दिया जाता है और वह क्षम्य नहीं होते और यदि क्षम्य होते भी हैं तो राज्य के अन्य किसी को क्षमा प्रदान करने की अधिकारिता नहीं होती है।"
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(n) में भी अपराध को परिभाषित किया गया है ,"जिसके अनुसार ऐसा कोई कार्य जो किसी भी विधि में दंडनीय है अपराध कहलाता है।"
अपराध की उपयुक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी कार्य जो विधि के विरुद्ध है और जिसके लिए दंड संहिता में या अन्य किसी भी विधि में दंड की व्यवस्था की गई है अपराध कहलाता है।
अपराध के प्रकार
- संज्ञेय अपराध
- असंज्ञेय अपराध
- राज्य के विरुद्ध अपराध
- मानव शरीर के विरुद्ध अपराध
- संपत्ति के विरुद्ध अपराध
अपराध का क्या अर्थ होता है? अपराध के चरण क्या है? |
अपराध के चरण/स्तर
जब कोई अपराध कारित होता है तब अनेक चरणों से होकर अपराध का रूप लेता है अपराध के मुख्य चार चरण होते हैं वह है –आशय ,तैयारी ,प्रयास और अपराध का निष्पादन इनके बारे में विस्तृत उल्लेख निम्नलिखित है–
(1) आशय (Intention)–
अपराध किए जाने की प्रथम अवस्था आशय है । प्रत्येक कार्य के पीछे व्यक्ति की भावनाएं निहित होती है , यह एक मानसिक अवस्था है , जिसके लिए दंड संहिता में कोई दंड उल्लेखित नहीं है। अर्थात आशय जब तक किसी व्यक्ति के मन में रहता है वह दंडनीय नहीं है । इसे दंड संहिता की धारा 34 में परिभाषित किया गया है।
(2) तैयारी (Prepration)–
यह अपराध कारित किए जाने की दितीय अवस्था है । इस चरण में व्यक्ति अपने आशय को पूर्ण करने के लिए कुछ तैयारी करता है ,जैसे हथियारों का इंतजाम करना आदि।
Example – A एक व्यक्ति ,दूसरे व्यक्ति B के घर में चोरी छुपे घुसने का आशय करता है , और इसके लिए एक सीढ़ी का इंतजाम करता है । तो यहां A तब तक अपराध का दोषी नहीं माना जाएगा ,जब तक वह सीढ़ी का उपयोग करके B के घर में प्रवेश नहीं करता है।
- भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने के आशय से आयुध आदि संग्रह करना (धारा 122),
- डकैती करने के लिए तैयारी करना (धारा 399) ।
(3) प्रयत्न (Attempt)–
(4) अपराध का निष्पादन (Accomplishment)–
अपराध का आखरी चरण है अपराध का निष्पादन । अपराध कारित करने के लिए व्यक्ति सबसे पहले उसका आशय या विचार करता है, फिर तैयारी करता है जो सामान्यतः दंडनीय नहीं है। इन दोनों चरणों के बाद व्यक्ति अपराध का प्रयत्न करता है और यदि प्रयत्न सफल हो जाता है, तो वह कार्य पूर्णअपराध का रूप ले लेता है और उसी प्रकार दण्डनीय होता है, जिस प्रकार उस अपराध के लिए दंड संहिता में विहित किया गया है।
अब यह भली-भांति स्पष्ट है कि अपराध क्या है और अपराध के चरण कितने होते हैं ।कोई भी कार्य एकदम से अपराध का रुप नहीं लेता है , उसके लिए कुछ अवस्थाएं होती है जो है ,आशय , तैयारी , प्रयत्न और अपराध का निष्पादन । कोई भी अपराध इन चरणों के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है।
Hindi Varnamala : हिंदी वर्णमाला स्वर और व्यंजन के भेद एवं वर्गीकरण
"हिंदी भाषा" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की "भाष'' धातु से हुई है। जिसका अर्थ है "बोलना या वाणी की अभिव्यक्ति"।
"हिन्दी भाषा" भारत की सांस्कृतिक एकता, जन जागरूकता एवं सामाजिक सम्पर्क की भाषा है। इसकी लिपि "देवनागरी लिपि" है।
जिस रूप में ध्वनि-चिन्ह या वर्ण लिखे जाते है ,उन्हें लिपि कहते है।
हिंदी व्याकरण की विस्तृत जानकारी के लिए Varnmala in Hindi (Alphabet) के विभिन्न घटको (जैसे अक्षर स्वर (Swar), व्यंजन (Vyanjan), घोष (Ghosh), अघोष (Aghosh), अल्पप्राण और महाप्राण) की जानकारी होना बहुत आवशयक है।
अतः इस लेख में हम Hindi Varnamala (हिंदी वर्णमाला) स्वर (Swar) और व्यंजन (Vyanjan) के भेद एवं वर्गीकरण का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
हिंदी वर्णमाला (Hindi Varnamala) :
हिन्दी व्याकरण में वर्णमाला (Hindi Alphabet) का महत्वपूर्ण स्थान है। हिंदी भाषा की शुरुआत Hindi Varnmala (वर्णमाला) से ही होती है।
- States and Capitals of India 2022 in hindi | भारत के राज्य और उनकी राजधानी
- Sandhi Viched Trick in Hindi Grammar
वर्ण (Letters) - भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि है। ध्वनि को लिखित रूप (Written) में वर्ण (Letters) द्वारा व्यक्त किया जाता है।
हिन्दी वर्णमाला (Alphabet) - वर्णो के व्यवस्थित समूह को वर्णमाला (Hindi Alphabet) कहते है।
मानक हिंदी वर्णमाला - मूलतः हिंदी में उच्चारण के आधार पर 45 वर्ण है (10 स्वर + 35 व्यंजन) एवं लेखन के आधार पर "52 वर्ण" है।
नोट - उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुत्तम इकाई "ध्वनि" है। लेखन की दृष्टि से भाषा की सबसे छोटी इकाई "वर्ण" है।
हिंदी वर्णमाला के प्रकार (Hindi Varnamala ke Bhed) -
स्वर ( Swar in Hindi Grammar) -
वे वर्ण ,जिनके उच्चारण के लिए किसी दूसरे वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती है या स्वतंत्र रूप से बोले जाने वाले वर्ण ,स्वर (Vowels) कहलाते है।
- Alankar in Hindi Grammar
- Cabinet Ministers of India 2022 in Hindi PDF: केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सूची
नोट - ऋ और लृ एवं लृ दोनों का प्रयोग अब नहीं होता है। इस प्रकार अब Hindi Varnmala में स्वरों (Vowels) की संख्या 11 है।
स्वर | मात्रा |
अ | |
आ | ा |
इ | ि |
ई | ी |
उ | ु |
ऊ | ू |
ऋ | ृ |
ए | े |
ऐ | ैै |
ओ | ो |
औ | ौ |
- Karak in Hindi Grammar: हिंदी व्याकरण कारक की परिभाषा भेद एवं चिन्ह
स्वर के प्रकार (Swar ke Bhed) -
२- दीर्घ स्वर - जिनके उच्चारण में एक मात्रा (ह्रस्व स्वर) का दूना समय खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है खातों का वर्गीकरण कितने प्रकार का होता है लगे, उसे द्विमात्रिक या दीर्घ स्वर कहते है।
३-प्लुत स्वर - जिसके उच्चारण में सबसे अधिक समय (दीर्घ स्वर से भी ज्यादा) लगता है। सामन्यतः इसके उच्चारण में एक मात्रा का तिगुना समय लगता है।