आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष

स्वयं सहायता समूह और महिला सशक्तिकरण | Original Article (Smt.) Uma Joshi*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research
आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष
Year: Jun, 2019
Volume: 16 / Issue: 9
Pages: 1418 - 1424 (7)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: http://www.ignited.in/I/a/303850
Published On: Jun, 2019
Article Details
स्वयं सहायता समूह और महिला सशक्तिकरण | Original Article
(Smt.) Uma Joshi*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research
चने की बढ़वार और उपज घटकों पर बुवाई की तिथियों, प्रजातियों आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष और फास्फोरस स्तरों का प्रभाव (Growth and yield attributes of chickpea (Cicer arietinum) as Influenced by sowing dates, varieties and levels of phosphorus)
भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक, आयातक और उपभोक्ता है। गत कई वर्षों से देश में चावल व गेहूँ का पर्याप्त भंडार है, परंतु दालों की कमी रही है। जिसके परिणामस्वरूप दालों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता वर्ष 1961 में 65 ग्राम आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष से घटकर वर्ष 2011 में मात्रा 39.4 ग्राम रह गई। जबकि इसी अवधि में आनाजों की उपलब्धता 399.7 से बढ़कर 423.5 ग्राम हो गई। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2030 आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष तक दालों की आवश्यकता 32 मिलियन टन होगी। भारत की आधे से अधिक आबादी के लिये दालें न केवल पौष्टिकता का आधार है, बल्कि प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत भी है। साथ ही भोजन में दालों की पर्याप्त मात्रा होने से प्रोटीन की कमी से होने वाले कुपोषण को भी रोका जा सकता है। विश्व स्तर पर दालें स्वास्थ्य, पोषण, खाद्य सुरक्षा और टिकाऊ पर्यावरण में महत्त्वपूर्ण आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष भूमिका निभाती है। रबी में उगायी जाने वाली दलहनी फसलों में चने का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व उत्तर प्रदेश में छोलिया का प्रयोग हरी सब्जी के रूप में बहुतायत में किया जाता है। उत्तर भारत में छोलिया की मांग दिसम्बर व जनवरी के महीनों में चरम सीमा पर रहती है। जबकि उत्तर भारत में छोलिया की फसल फरवरी के अंत में ही बाजार में आती है जो मार्च के अंत तक चलती रहती है। दिसम्बर-जनवरी के समय बाजार में छोलिया की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये दक्षिण भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों से फसल ऊँचे भाव पर बाजार में बिकती है। दक्षिण भारत में इस समय मौसम उत्तरी भारत की अपेक्षा छोलिया की फसल के लिये उपयुक्त रहता है। परिणामस्वरूप छोलिया की फसल जल्दी ही बाजार में आ जाती है। परंतु दक्षिण भारत से उत्तर भारत के शहरों तक उत्पाद लाने में यातायात व अन्य व्यय बढ जाता है। इसके साथ ही छोलिया की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अतः बाजार में प्रचलित छोलिया की कीमत (रु.30/-कि.ग्रा.) का मात्र 60 प्रतिशत ही किसानों को मिल पाता है। इसलिए छोलिया की खेती स्थानीय क्षेत्रों में ही की जाए तो परिवहन व अन्य रख-रखाव में होने वाले खर्चों में कमी करके किसान भाई छोलिया की खेती से अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।
Abstract
India is the world’s largest producer, importer and consumer of pulses. Over the years, while the country has accumulated a huge surplus of wheat and rice, the pulses remain in short supply. Consequently, the per capita availability of pulses progressively declined from 65 ga day in year 1961 to merely 39.4 g in year 2011, whereas, availability of cereals has gone up from 399.7 to 423.5 g. The projected pulses requirement by the year 2030 is estimated at about 32 million tons. Pulses are the most economical source of vegetable protein for hilly, tribal and rural populations. Pulses globally can play in advancing health and nutrition, food security and environmental sustainability. Chickpea (Cicer arietinum) play a vital role among leguminous crops cultivated in winter season. Chickpea is the premier pulse crop of Indian sub continent. In India, the entire harvested area of chickpea is about 9.6 million hectare with production and productivity are 8.8 million tons and 920 kg/ha, respectively. It is generally grown as a pulse and green vegetable in Punjab, Haryana, Madhya Pradesh, Delhi and Uttar Pradesh with 33 percent of the world’s area and 22 percent of the production. The demand of green pods of chickpea is remain in peak during December and January particularly in North India. However, green pods of chickpea are available at the end of February in North India and remained in the market till the end of March. Green pods of chickpea transported from southern part to northern part of India at a high price to fulfill the increasing market demand during December-January. During this period weather condition is favourable for chickpea cultivation in south India as compare to North India. Consequently the green pods of chickpea are easily and early available in South India. Hence, transportation and other expenses increase to bring green pods of chickpea from Southern India to North India. Besides, the quality and quantity of green pods of chickpea are also affected adversely. Further the farmers get only 60 percent of the prevalent market price of green pods of chickpea. Keeping in the view the above mentioned facts a field experiment was carried out at the research farm of Division of Agronomy, Indian Agricultural Research Institute, New Delhi to evaluate the influence of sowing dates, varieties and levels of phosphorus on the growth and yield attributes of chickpea. So that chickpea cultivation may become more profitable and productive to the local farmers. Furthermore, consumers may get fresh, cheap and better quality green pods of chickpea at lower price.
प्रस्तावना
दलहनी फसलों में चने का प्रमुख स्थान है। दलहनी फसलों के अंतर्गत इसका क्षेत्रफल एवं उत्पादन सबसे अधिक है। चना एक महत्त्वपूर्ण रबी फसल है। भारत में मुख्यतः काला चना उगाया जाता है। परंतु काबुली (सफेद) चने के उत्पादन पर अब अधिक ध्यान दिया जा रहा है। काबुली चना देशी चना की अपेक्षा विभिन्न जैविक व अजैविक समस्याओं से अधिक प्रभावित होता है। चना हमारे भोजन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो अधिकांश प्रोटीन की आपूर्ति करता है। चना प्रोटीन और आवश्यक अमीनों अम्लों की आपूर्ति के साथ-साथ जमीन की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाता है। साथ ही फसल चक्र में चना की फसल लेने से मृदा उर्वरता और गुणवत्ता में भी सुधार होता है। परिणामस्वरूप अगली फसलों का उत्पादन भी अच्छा होता है। चने का आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष प्रयोग दाल के रूप में, भुने हुए चने या उबले हुए चनों में नमक लगातार किया जाता है। चने के छिलके व दाल पशुओं का स्वादिष्ट, पौष्टिक व ताकतवर भोजन है। चने की भूसी फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, जिंक और मैंग्नीज का अच्छा स्रोत है। हरे चने की ताजी पत्तियाँ साग बनाने में प्रयोग की जाती है। हरे चने के दानों को सब्जी के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। चने का भूसा भी पशुओं का सर्वोत्तम आहार है। चने के बेसन से विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं। चने का प्रयोग खून साफ करने में भी चिकित्सीय महत्व का है। विश्व में भारत, भूमध्य क्षेत्र, इथोपिया, मैक्सिको, अर्जेटीना, चिली व पेरू में चने की खेती बहुतायत में की जाती है। भारत विश्व में सबसे अधिक चना उत्पादन करने वाला देश है। भारत में चने का क्षेत्रफल 9.6 मिलियन हेक्टेयर तथा उत्पादन 8.8 मिलियन टन है। भारत में चना उगाने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार व पंजाब प्रमुख है। हमारे देश में चने की औसत पैदावार मात्र 9.2 क्विं/हे. है।
चने की बढ़वार और उपज घटकों पर बुवाई की तिथियों, प्रजातियों और फास्फोरस स्तरों का प्रभाव (Growth and yield attributes of chickpea (Cicer arietinum) as Influenced by sowing dates, varieties and levels of phosphorus)
भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक, आयातक और उपभोक्ता है। गत कई वर्षों से देश में चावल व गेहूँ का पर्याप्त आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष भंडार है, परंतु दालों की कमी रही है। जिसके परिणामस्वरूप दालों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता वर्ष 1961 में 65 ग्राम से घटकर वर्ष 2011 में मात्रा 39.4 ग्राम रह गई। जबकि आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष इसी अवधि में आनाजों की उपलब्धता 399.7 से बढ़कर 423.5 ग्राम हो गई। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2030 तक दालों की आवश्यकता 32 मिलियन टन होगी। भारत की आधे से अधिक आबादी के लिये दालें न केवल पौष्टिकता का आधार है, बल्कि प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत भी है। साथ ही भोजन में दालों की पर्याप्त मात्रा होने से प्रोटीन की कमी से होने वाले कुपोषण को भी रोका जा सकता है। विश्व स्तर पर दालें स्वास्थ्य, पोषण, खाद्य सुरक्षा और टिकाऊ पर्यावरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रबी में उगायी जाने वाली दलहनी फसलों में चने का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व उत्तर प्रदेश में छोलिया का प्रयोग हरी सब्जी के रूप में बहुतायत में किया जाता है। उत्तर भारत में छोलिया की मांग दिसम्बर व जनवरी के महीनों में चरम सीमा पर रहती है। जबकि उत्तर भारत में छोलिया की फसल फरवरी के अंत में ही बाजार में आती है जो मार्च के अंत तक चलती रहती है। दिसम्बर-जनवरी के समय बाजार में छोलिया की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये दक्षिण भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों से फसल ऊँचे भाव पर बाजार में बिकती है। दक्षिण भारत में इस समय मौसम उत्तरी भारत की अपेक्षा छोलिया की फसल के लिये उपयुक्त रहता है। परिणामस्वरूप छोलिया की फसल जल्दी ही बाजार में आ जाती है। परंतु दक्षिण भारत से उत्तर भारत के शहरों तक उत्पाद लाने में यातायात व अन्य व्यय बढ जाता है। इसके साथ ही छोलिया की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अतः बाजार में प्रचलित छोलिया की कीमत (रु.30/-कि.ग्रा.) का मात्र 60 प्रतिशत ही किसानों को मिल पाता है। इसलिए छोलिया की खेती स्थानीय क्षेत्रों में ही की जाए तो परिवहन व अन्य रख-रखाव में होने वाले खर्चों में कमी करके किसान भाई छोलिया की खेती से अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।
Abstract
India is the world’s largest producer, importer and consumer of pulses. Over the years, while the country has accumulated a huge surplus of wheat and rice, the pulses remain in short supply. Consequently, the per capita availability of pulses progressively declined from 65 ga day in year 1961 to merely 39.4 g in year 2011, whereas, availability of cereals has gone up from 399.7 to 423.5 g. The projected pulses requirement by the year 2030 is estimated at about 32 million tons. Pulses are the most economical source of vegetable protein for hilly, tribal and rural populations. Pulses globally can play in advancing health and nutrition, food security and environmental sustainability. Chickpea (Cicer arietinum) play a vital role among leguminous crops cultivated in winter season. Chickpea is the premier pulse crop of Indian sub continent. In India, the entire harvested area of chickpea is about 9.6 million hectare with production and productivity are 8.8 million tons and 920 kg/ha, respectively. It is generally grown as a pulse and green vegetable in Punjab, Haryana, Madhya Pradesh, Delhi and Uttar Pradesh with 33 percent of the world’s area and 22 percent of the production. The demand of green pods of chickpea is remain in peak during December and January particularly in North India. However, green pods of chickpea are available at the end of February in North India and remained in the market till the end of March. Green pods of chickpea transported from southern part to northern part of India at a high price to fulfill the increasing market demand during December-January. During this period weather condition is favourable for chickpea cultivation in south India as compare to North India. Consequently the green pods of chickpea are easily and early available in South India. Hence, transportation and other expenses increase to bring green pods of chickpea from Southern India to North India. Besides, the quality and quantity of green pods of chickpea are also affected adversely. Further the farmers get only 60 percent of the prevalent market price of green pods of chickpea. Keeping in the view the above mentioned facts a field experiment was carried out at the research farm of Division of Agronomy, Indian Agricultural Research Institute, New Delhi to evaluate the influence of sowing dates, varieties and levels of phosphorus on the growth and yield attributes of chickpea. So that chickpea cultivation may become more profitable and productive to the local farmers. Furthermore, consumers may get fresh, cheap and better quality green pods of chickpea at lower price.
प्रस्तावना
दलहनी फसलों में चने का प्रमुख स्थान है। दलहनी फसलों के अंतर्गत इसका क्षेत्रफल एवं उत्पादन सबसे अधिक है। चना एक महत्त्वपूर्ण रबी फसल है। भारत में मुख्यतः काला चना उगाया जाता है। परंतु काबुली (सफेद) चने के उत्पादन पर अब अधिक ध्यान दिया जा रहा है। काबुली चना देशी चना की अपेक्षा विभिन्न जैविक व अजैविक समस्याओं से अधिक प्रभावित होता है। चना हमारे भोजन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो अधिकांश प्रोटीन की आपूर्ति करता है। चना प्रोटीन और आवश्यक अमीनों अम्लों की आपूर्ति के साथ-साथ जमीन की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाता है। साथ ही फसल चक्र में चना की फसल लेने आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष से मृदा उर्वरता और गुणवत्ता में भी सुधार होता है। परिणामस्वरूप अगली फसलों का उत्पादन भी अच्छा होता है। चने का प्रयोग दाल के रूप में, भुने हुए चने या उबले हुए चनों में नमक लगातार किया जाता है। चने के छिलके व दाल पशुओं का स्वादिष्ट, पौष्टिक व ताकतवर भोजन है। चने की भूसी फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, जिंक और मैंग्नीज का अच्छा स्रोत है। हरे चने की ताजी पत्तियाँ साग बनाने में प्रयोग की जाती है। हरे चने के दानों को सब्जी के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। चने का भूसा भी पशुओं का सर्वोत्तम आहार है। चने के बेसन से विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं। चने का प्रयोग खून साफ करने में भी चिकित्सीय महत्व का है। विश्व में भारत, भूमध्य क्षेत्र, इथोपिया, मैक्सिको, अर्जेटीना, चिली व पेरू में चने की खेती बहुतायत में की जाती है। भारत विश्व में सबसे अधिक चना उत्पादन करने वाला देश है। भारत में चने का क्षेत्रफल 9.6 मिलियन हेक्टेयर तथा उत्पादन 8.8 मिलियन टन है। भारत में चना उगाने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार व पंजाब प्रमुख है। हमारे देश में चने की औसत पैदावार मात्र 9.2 क्विं/हे. है।
कोविड -19 के उपचार से संबंधित एन.आई.सी.ई प्रोटोकॉल के बारे में मीडिया में आई खबरों का खंडन
नई दिल्ली 29 जुलाई :हाल ही में मीडिया में इस आशय की कुछ खबरें आई हैं कि आयुष मंत्रालय के तहत पुणे स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नेचुरोपैथी (एनआईएन) ने कोविड -19 के हल्के से लेकर गंभीर मरीजों के उपचार के लिए डॉ. बिस्वरूप रॉय चौधरी के एन.आई.सी.ई प्रोटोकॉल की सिफारिश की है। यह स्पष्ट किया जाता है कि यह खबर पूरी तरह से गलत है। ये खबरें एन.आई.सी.ई द्वारा किए गए कुछ झूठे दावों पर आधारित प्रतीत आईसी बाजार की समीक्षा निष्कर्ष होती हैं।
एनआईएन, पुणे ने यह स्पष्ट किया है कि आयुष मंत्रालय ने नेटवर्क ऑफ इन्फ्लुएंजा केयर एक्सपर्ट्स (एन.आई.सी.ई) द्वारा विकसित इस प्रोटोकॉल को मंजूरी नहीं दी है।
एनआईएन द्वारा एन.आई.सी.ई का समर्थन नहीं
एनआईएन ने कोविड-19 के उपचार के लिए प्राकृतिक चिकित्सा से जुड़ी सर्वोत्तम पद्धतियों का दस्तावेजीकरण किया है। इस सन्दर्भ में, एनआईएन ने अहमदनगर स्थित एन.आई.सी.ई केन्द्र में अपनाई जा रही पद्धतियों के दस्तावेजीकरण के लिए एक भूतलक्षी निष्कर्षों से संबंधित अध्ययन किया है। यह विशुद्ध रूप से एक अकादमिक गतिविधि थी। यह गतिविधि किसी भी तरह से उक्त पद्धतियों का समर्थन नहीं है।
एनआईएन ने आगे बताया है कि एनआईएन की तकनीकी टीम द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट एनआईसीई की टीम और रोगियों के साथ साक्षात्कार और चर्चा के आधार पर किए गए भूतलक्षी निष्कर्षों के एक हिस्से के रूप में दर्ज की गई बातों की महज एक पुनर्प्रस्तुति है। इस प्रकार निकाला गया निष्कर्ष अकादमिक गतिविधि का एक हिस्सा है और इसे वैज्ञानिक दृष्टि से पूरी तरह परखने के बाद ही स्वीकार किया जा सकता है।
कोविड के प्रति उपयुक्त व्यवहार की जरूरत नहीं होने संबंधी एन.आई.सी.ई के कथन पर एनआईएन की कड़ी आपत्ति
एनआईएन ने एन.आई.सी.ई द्वारा 23 जुलाई, 2021 को आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में कथित तौर पर दिए गए बयान और सोशल मीडिया में प्रसारित किए जा रहे एक वीडियो पर भी कड़ी आपत्ति जताई है, जिसमें यह कहा गया है कि पीपीई किट, मास्क पहनने या सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। एनआईएन कोविड-19 महामारी के दौरान राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत निर्धारित सभी दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करता है और उनका समर्थन करता है। एनआईएन सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनने जैसे कोविड के प्रति उपयुक्त व्यवहारों का कड़ाई से समर्थन करता है और उन्हें कोविड-19 से बचाव और उसकी रोकथाम के लिए आवश्यक मानता है।
एनआईएन की पहचान का अनधिकृत उपयोग
यह भी स्पष्ट किया जाता है कि एन.आई.सी.ई ने अपनी उपचार प्रणाली के अनुमोदक के रूप में एनआईएन, आयुष मंत्रालय के नाम को प्रदर्शित करने के लिए एनआईएन से अनुमति नहीं ली थी और इस तरह, उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में एन.आई.सी.ई द्वारा एनआईएन, आयुष मंत्रालय, भारत सरकार के नाम और राष्ट्रीय चिन्ह का उपयोग अनधिकृत है।
एनआईएन की ओर से एन.आई.सी.ई को इस संबंध में जारी किए गए अपने वीडियो और झूठे बयानों को वापस लेने के लिए कहा जा रहा है।
कोविड -19 के उपचार से संबंधित एन.आई.सी.ई प्रोटोकॉल के बारे में मीडिया में आई खबरों का खंडन
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एनआईएन, पुणे ने यह स्पष्ट किया है कि आयुष मंत्रालय ने नेटवर्क ऑफ इन्फ्लुएंजा केयर एक्सपर्ट्स (एन.आई.सी.ई) द्वारा विकसित इस प्रोटोकॉल को मंजूरी नहीं दी है।
एनआईएन द्वारा एन.आई.सी.ई का समर्थन नहीं
एनआईएन ने कोविड-19 के उपचार के लिए प्राकृतिक चिकित्सा से जुड़ी सर्वोत्तम पद्धतियों का दस्तावेजीकरण किया है। इस सन्दर्भ में, एनआईएन ने अहमदनगर स्थित एन.आई.सी.ई केन्द्र में अपनाई जा रही पद्धतियों के दस्तावेजीकरण के लिए एक भूतलक्षी निष्कर्षों से संबंधित अध्ययन किया है। यह विशुद्ध रूप से एक अकादमिक गतिविधि थी। यह गतिविधि किसी भी तरह से उक्त पद्धतियों का समर्थन नहीं है।
एनआईएन ने आगे बताया है कि एनआईएन की तकनीकी टीम द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट एनआईसीई की टीम और रोगियों के साथ साक्षात्कार और चर्चा के आधार पर किए गए भूतलक्षी निष्कर्षों के एक हिस्से के रूप में दर्ज की गई बातों की महज एक पुनर्प्रस्तुति है। इस प्रकार निकाला गया निष्कर्ष अकादमिक गतिविधि का एक हिस्सा है और इसे वैज्ञानिक दृष्टि से पूरी तरह परखने के बाद ही स्वीकार किया जा सकता है।
कोविड के प्रति उपयुक्त व्यवहार की जरूरत नहीं होने संबंधी एन.आई.सी.ई के कथन पर एनआईएन की कड़ी आपत्ति
एनआईएन ने एन.आई.सी.ई द्वारा 23 जुलाई, 2021 को आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में कथित तौर पर दिए गए बयान और सोशल मीडिया में प्रसारित किए जा रहे एक वीडियो पर भी कड़ी आपत्ति जताई है, जिसमें यह कहा गया है कि पीपीई किट, मास्क पहनने या सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। एनआईएन कोविड-19 महामारी के दौरान राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत निर्धारित सभी दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करता है और उनका समर्थन करता है। एनआईएन सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनने जैसे कोविड के प्रति उपयुक्त व्यवहारों का कड़ाई से समर्थन करता है और उन्हें कोविड-19 से बचाव और उसकी रोकथाम के लिए आवश्यक मानता है।
एनआईएन की पहचान का अनधिकृत उपयोग
यह भी स्पष्ट किया जाता है कि एन.आई.सी.ई ने अपनी उपचार प्रणाली के अनुमोदक के रूप में एनआईएन, आयुष मंत्रालय के नाम को प्रदर्शित करने के लिए एनआईएन से अनुमति नहीं ली थी और इस तरह, उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में एन.आई.सी.ई द्वारा एनआईएन, आयुष मंत्रालय, भारत सरकार के नाम और राष्ट्रीय चिन्ह का उपयोग अनधिकृत है।
एनआईएन की ओर से एन.आई.सी.ई को इस संबंध में जारी किए गए अपने वीडियो और झूठे बयानों को वापस लेने के लिए कहा जा रहा है।