आभासी मुद्राएँ

आभासी मुद्राएँ
आंध्र-सातवाहन वंश (30 ई.पू. से 250 ई0)
इस वंश का संस्थापक सिमुक था। सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक था। पुराणों में इन्हें ‘आंध्रभृत्य’ कहा गया है तथा अभिलेखों में ‘सातवाहन’ कहा गया है। सातवाहन वंश की राजधानी प्रतिष्ठान/पैठान थी तथा इसकी राजकीय भाषा ‘प्राकृत’ तथा लिपि ‘ब्राम्ही’ थी। इस वंश की जानकारी हमें अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक तीनों से प्राप्त होती है, जो निम्नलिखित हैं-
- रानी नागनिका का नानाघाट अभिलेख (पुणे, महाराष्ट्र)
- गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख
- गौतमी बलश्री का नासिक गुहालेख
- वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख
- वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख
- यज्ञश्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख
सातवाहन वंश किसी-न-किसी रूप में लगभग तीन शताब्दियों तक बना रहा, जो प्राचीन भारत में किसी एक वंश का सर्वाधिक कार्यकाल है।
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वित्तपोषण की एक विधि के रूप में क्रिप्टोकरेंसी
जलवायु परिवर्तन को रोकने के बारे में सभी कार्यों और नियोजन के लिए एक विशेष प्रकार की मुद्रा है जो एक डिजिटल मुद्रा के रूप में काम करती है: क्रिप्टोकरेंसी। उस परियोजना की शुरूआत के लिए धन्यवाद, जिसमें स्पेन क्लाइमेटकोइन नामक भाग ले रहा है, दुनिया भर के निवेशकों को इस उद्देश्य के लिए वित्तपोषण के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में भाग लेने का अवसर दिया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए निवेशक कैसे वित्त दे सकते हैं, इसके बारे में अधिक जानना चाहते हैं?
cryptocurrencies
इन सिक्कों में ब्लॉकचेन पर आधारित तकनीक है और इससे हर कोई जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने में योगदान कर सकता है। यह दुनिया भर की कंपनियों के लिए आवश्यक है कि हम पर्यावरण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर होने वाले प्रभावों को कम करने के लिए और अधिक कुशल प्रौद्योगिकी में नवाचार करें और इस तरह से, एक समस्या को वास्तविक समय में वैश्विक स्तर पर निपटाया जा सकता है.
जिन व्यवसायों को पर्यावरण की जिम्मेदारी और देखभाल करनी है, उनके पास एक मंच हो सकता है जिसमें वे काम और जलवायु समाधान परियोजनाओं में निवेश कर सकते हैं। यह मंच पर्यावरण के लिए अधिक प्रतिबद्धता के लिए अनुमति देता है और प्रत्यक्ष, विश्वसनीय और पारदर्शी समाधान भी दर्शाता है।
जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वित्तपोषण
दिसंबर के इस महीने के दौरान, पहली बैठकें होंगी, जिसमें "कॉइनवॉइस" ICOs नामक इन सिक्कों को एक प्रारंभिक मूल्य दिया जाएगा। की कोशिश की जाएगी इनमें से 255 मिलियन मुद्राएँ रखें ताकि उन्हें बिटकॉइन के साथ-साथ ईथर की मुख्य आभासी मुद्राओं में से एक के बदले में प्राप्त किया जा सके।
नागरिक, संस्थान, निवेश कोष, कंपनियां और सरकारें इस चरण में भाग ले सकती हैं और इस बारे में जागरूक हो सकती हैं कि जब काम पूरा हो जाएगा, तो सिस्टम के कार्य प्रभारी पर्यावरणीय परियोजनाओं का चयन करेंगे जो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में पर्याप्त परिवर्तन प्रदान करने में मदद कर सकती हैं।
जिन परियोजनाओं के सफल होने की सबसे अधिक संभावना है, वे आमतौर पर उन पर आधारित होती हैं स्थायी गतिशीलता (बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, जो परिवहन से आते हैं), नवीकरणीय ऊर्जा से संबंधित सब कुछ (एक कार्बोनेटेड संक्रमण की ओर ऊर्जा का भविष्य स्टीयरिंग), बिजली और कृषि से संबंधित मुद्दों आदि।
पहली कंपनियां जो वित्त पोषण का विकल्प चुनती हैं, सब से ऊपर, विमान के लिए जैव ईंधन विकसित करने के लिए, बीज जो कि जलवायु परिवर्तन से बढ़े सूखे की अवधि के लिए अधिक प्रतिरोधी हैं और कुछ प्रौद्योगिकियां जो मदद करती हैं वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड की अवधारण।
क्लाइमेटकॉइन इस संभावना की पेशकश करता है कि कंपनियां तथाकथित सीओ 2 उत्सर्जन अधिकारों के साथ व्यापार कर सकती हैं जो क्योटो प्रोटोकॉल में स्थापित किए गए थे। इसका उद्देश्य प्रौद्योगिकियों का लोकतंत्रीकरण करना और उनकी बिक्री के लिए संयुक्त राष्ट्र के साथ एक समझौता करना है।
सामाजिक जागरूकता में वृद्धि
यह पहल सामाजिक जागरूकता में वृद्धि का कारण बन सकती है क्योंकि प्रतिभागी उन लोगों की आय से आने वाले आर्थिक रिटर्न को प्राप्त कर सकते हैं जो क्रिप्टोकरेंसी के साथ बातचीत करते हैं, जिसका प्लेटफ़ॉर्म प्राप्त लाभ का एक प्रतिशत वितरित करने में सक्षम है।
इस प्रणाली के साथ, लोग जलवायु परिवर्तन के परिणामों के बारे में अपनी जागरूकता बढ़ा सकते हैं और इसे रोकने के लिए अपना काम कर सकते हैं। इस वैश्विक समस्या से निपटने के लिए कुछ नया जोड़ा जा सकता है जो हम सभी को चिंतित करता है।
इस परियोजना के साथ उन्होंने हाल ही में भाग लिया है बॉन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (COP23) आयोजित किया गया, जर्मनी, जहां यह समझाया गया है कि इस क्षेत्र में ब्लॉकचेन का उपयोग उन सभी परियोजनाओं की निगरानी की सुविधा प्रदान कर सकता है जो जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के उद्देश्य से सरकारी कार्यक्रमों को लागू करते हैं। इन परियोजनाओं के साथ कंपनियों का अनुपालन सभी द्वारा घोषित किया जाता है।
अंत में, यह कहा जा सकता है कि यह तकनीक पर्यावरणीय कार्यों में निवेश करना आसान बनाने में मदद करती है जो जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद करती हैं और ताकि लोग अपना छोटा योगदान दे सकें।
लेख की सामग्री हमारे सिद्धांतों का पालन करती है संपादकीय नैतिकता। त्रुटि की रिपोर्ट करने के लिए क्लिक करें यहां.
लेख का पूरा रास्ता: नेटवर्क मौसम विज्ञान » मौसम विज्ञान » जलवायु परिवर्तन » जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वित्तपोषण की एक विधि के रूप में क्रिप्टोकरेंसी
SSBYN Education
'मुद हर्ष' धातु में “रक् प्रत्यय लगाकर आभासी मुद्राएँ मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।
यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'मुद्रा' का अभ्यास किया जाता है। इसलिए इसे अंगों की स्थिति विशेष के रूप में भी लिया जाता है। और इनमें हाथों तथा मुख की विशेष स्थिति को भी सम्मिलित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ जानुशिरासन में बैठकर प्राणायाम तथा बन्धों का प्रयोग करके महामुद्रा का अभ्यास किया जाता है तथा प्राणायाम के अभ्यास के लिए हाथ की विशेष मुद्रा बनाकर नासारन्ध्रों पर ले जानी होती है। अतः उक्त 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' अर्थ उचित है। "मुद्रा' अत्यन्त बहुमूल्य साधन हैं जो कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करके साधक को लक्ष्य तक पहुँचाती है। अतः 'सुवर्ण या धन या रुपया' का भाव भी इसमें निहित है। इसकी बहुमूल्यता निःसन्देह सिद्ध होती है। उपर्युक्त अर्थ के आलोक में मुद्रा की परिभाषा निम्न प्रकार से दी जा सकती है-
- आन्ततरिक भावों को व्यक्त करने की विधा मुद्रा कहलाती है।
- आसन, प्राणायाम की सम्मिलित विशिष्ट स्थिति जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण सम्भव है, मुद्रा कहलाती है।
- आनन्द की प्राप्ति कराने वाली प्रक्रिया मुद्रा है।
- चित्त को प्रकट करने वाले विशेष भाव मुद्रा है।
- मुद्रा आसन की वह विशेष स्थिति जिसमें प्राणायाम सम्मिलित हो या नहीं हो परन्तु जो कुण्डलिनी जागरण में मदद करें वह मुद्रा है।
केवल आसन अथवा केवल प्राणायाम की अपेक्षा यह सम्मिलित अभ्यास शीघ्र फलदायक है। मुद्राओं के अभ्यास से साधक सूक्ष्म शरीर और प्राण शक्ति को नियंत्रित कर लेता है जिससे उसकी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो जाती है तथा साधना में सफलता प्राप्त होती है। साधक अपने प्राणमय और मनोमय कोष को स्वच्छ व निर्मल बना लेता है जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है तथा कुण्डलिनी जागरण व समाधि की स्थिति अनायास प्राप्त हो जाती है।
बंध का अर्थ एवं परिभाषा
बन्ध-बन्धने धातु में घञ प्रत्यय करके बन्ध शब्द बनता है जिसका अर्थ है. बांधना या नियन्त्रित करना। जिस प्रक्रिया के द्वारा शरीर के विभिन्न आन्तरिक अवयवों को बांधकर अथवा नियंत्रित करके साधना में प्रवृति होती है, वह क्रिया बंध कहलाती है। कोषकार अनेक अर्थ करते हैं। जैसे बांधना, कसना, जकड़ना, व्यवस्थित करना, रोकना, हस्तक्षेप करना आदि किन्तु यहाँ पर जिन बन्धों की चर्चा अपेक्षित है, वे शरीर को नियंत्रित करके साधना के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। बन्ध को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
किसी अंग विशेष को बांधकर संवेदनाओं को लक्ष्य विशेष की ओर भेजना बन्ध है।
योग के दृष्टिकोण से बन्ध का प्रयोग प्राणायाम के समय आवश्यक है। इसके द्वारा प्राण को नियंत्रित किया जाता है जिससे यह अनिश्चित जगह न जा सके। जहाँ प्राण पहुँचेगा, उसी अंग पर उसका प्रभाव पड़ेगा। अतः बन्ध का प्रयोग करके प्राण को नियंत्रित करके इच्छित स्थान पर उसको ले जाना संभव हो जाता है। कहा जा सकता है कि शरीर के अंगों को संकुचित करके प्राण को नियंत्रित करने के लिए वृत्तियों को अन्तर्मुखी करने की प्रक्रिया का नाम बन्ध है जिससे आन्तरिक अंग व स्नायु स्वस्थ तथा क्रियाशील होते हैं।
बंध व मुद्रा का उद्देश्य
मुद्राओं व बन्धों का कार्य साधक को साधना पथ पर अग्रसर करना है इन मुद्राओं व बन्धों के प्रयोग से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है जो हठयोगी की साधना का मुख्य उद्देश्य है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक अवयवों को नियंत्रित करके साधक की अन्तःस्रावी तथा बहि:स्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करता है जिनके स्राव से शारीरिक व मानसिक स्थिति सुदृढ़ होती है। मुद्रा के अभ्यास में 'स्थिरता' की बात स्वयं घेरण्ड संहिता में की गई है 'मुद्रया स्थिरता चैव'। स्नायु संस्थान को वशीभूत करके इच्छित ऊर्जा का उत्पादन एवं प्रयोग करके स्थिरता का भाव प्राप्त किया जा सकता है। यह मुद्रा का भाव साधक को अपने गुणों के सदृश ही ढाल लेता है और वह मुद्रा के प्रभाव से प्रभावित होकर साधना पथ पर अग्रसर हो जाता है। इन मुद्राओं के अभ्यास से तंत्रिका तंत्र के द्वारा मस्तिष्क को भेजे जाने वाले संदेश चेतना को जागृत करने में सफल हो जाते हैं।
बन्ध का प्रयोग तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है। गले, उदर अथवा गुदाद्वार पर जो तंत्रिकाएँ कार्यरत हैं, उन्हें सक्रिय करके अवरोध उत्पन्न कर दिया जाए तो प्राण के लिए ऊर्ध्व, अधो या मध्य मार्ग बंद हो जाएंगे और प्राण का सुषुम्ना में गमन होने लगेगा। इस प्रकार बन्ध कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने तथा प्राण पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
मुद्राएँ व बन्ध साधक की बाह्यवृत्ति को समाप्त कर अन्तःवृत्ति को जाग्रत करते हैं, जिससे वह संसार की ओर से विमुख होकर साधना पथ पर बढता रहे। इनके अभ्यास से वीतराग होकर साधक लक्ष्य प्राप्ति के प्रति सजग हो जाता है। ऐसा एकाग्रचित साधक साधकों की श्रेणी में सम्मान का अधिकारी होता आभासी मुद्राएँ है।
स्वामी कुवलयानन्द जी के अनुसार 'मुद्रा तथा बन्ध हठयोग की खास विशेषताएँ है। ये अनेक तंत्रिकापेशीय बन्ध लगाकर किए जाते हैं। इनमें आन्तरिक दबाव से बहुत बड़ी सीमा तक परिवर्तन होते हैं तथा अनेक ग्रंथिस्रावों तथा आभासी मुद्राएँ आभासी मुद्राएँ अन्तःस्रावी ग्रंथियों तथा कुछ तंत्रिका समूहों को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इस प्रकार के यौगिक व्यायाम से पेशाब तथा पाखाने की मात्रा कम हो जाती है (क्षयो मूत्र पुरीषयोः)। खास तौर से मूल तथा उड्डीयान बन्ध के अभ्यास द्वारा जोकि अभ्यासी की योग्यतानुसार विभिन्न प्रकार के उपवातावरणीय दबाव वक्ष तथा पेट गुहा में पैदा करते हैं।
स्वामी निरंजनानन्द की मान्यता है कि “योग शास्त्र में जिन मुद्राओं और बन्धों का वर्णन किया गया है वे तन्त्रिका तंत्र की संवेदनाओं और उत्तेजनाओं को शांत एवं संयत करने में सहायक सिद्ध होती हैं। कुण्डलिनी योग या क्रिया योग में जिन मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है जैसे अश्विनी मुद्रा, वज़्रोली मुद्रा, तड़ागी मुद्रा इत्यादि, उनका प्रभाव प्राणमय कोश पर पड़ता है और वे प्राण के प्रवाह को परिवर्तित करने का प्रयास करती है। उनका प्रभाव मस्तिष्क पर भी पड़ता है और वे चित्त के भीतर भाव विशेष को जाग्रत करने में सहायक होती हैं ताकि हम अन्तर्मुखी हो सकें। बन्धों एवं मुद्राओं का अभ्यास एकाग्रता प्राप्ति में सहायक होता है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार बन्ध के अभ्यास वास्तव में स्नायविक अवरोध हैं तथा शरीर और मस्तिष्क के भीतर जितनी भी तन्त्र तंत्रिकाएँ है, उनमें उत्पन्न हो रही संवेदनाओं को अवरुद्ध कर देते हैं और दूसरे प्रकार की संवेदनाओं को जाग्रत करते हैं। आन्तरिक अंगों में जहाँ भी संकुचन की क्रिया होती है, चाहे गर्दन में हो, चाहे कण्ठ में हो, चाहे जननेन्द्रिय के क्षेत्र में हो या गुदाद्वार के क्षेत्र में हो, वह आन्त्तरिक अंगों से सम्बन्धित प्रक्रियाओं को बदल देती है, संवेगों को बदल देती है। शरीर को एक अन्य प्रकार की उत्तेजनात्मक या शान्त अवस्था में ले जाती है, जिसके कारण आन्तरिक स्थिरता का आभास होता है।'
अतः स्पष्ट होता है कि बन्ध व मुद्राएँ हमें बाह्य या भौतिक जगत् से हटाकर अन्तर्जगत् में ले जाती है। अन्नमय, प्राणमय व मनोमय कोश पर विजय प्राप्त करने के बाद ही विज्ञानमय कोश में पहुँचने की स्थिति होती है। आसन, प्राणामय, बन्ध व मुद्रा के माध्यम से अन्नमय, प्राणमय व मनोमय कोश पर नियंत्रण किया जाना सम्भव है। अतः लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मुद्राओं की उपयोगिता निःसन्देह सिद्ध होती है। कहा गया है-
तस्मात् सर्वप्रयत्रेन प्रबोधयितुमीश्वरीम्।
बहाद्वारमुखे सुसां मुद्राभ्यासं समाचरेत्।। ह-प्र. 3/5
अर्थात् ब्रह्मदार (मूलस्थान) पर सोती हुई कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए सब प्रयत्न करके मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि मुद्राएँ ही कुण्डलिनी को जगाने के लिए एकमात्र सर्वोत्तम उपाय है। इससे मुद्रा के अभ्यास की उपयोगिता सिद्ध होती है।
आभासी मुद्राएँ
आंध्र-सातवाहन वंश (30 ई.पू. से 250 ई0)
इस वंश का संस्थापक सिमुक था। सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक था। पुराणों में इन्हें ‘आंध्रभृत्य’ कहा गया है तथा अभिलेखों में ‘सातवाहन’ कहा गया है। सातवाहन वंश की राजधानी प्रतिष्ठान/पैठान थी तथा इसकी राजकीय भाषा ‘प्राकृत’ तथा लिपि ‘ब्राम्ही’ थी। इस वंश की जानकारी हमें अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक तीनों से प्राप्त होती है, जो निम्नलिखित हैं-
- रानी नागनिका का नानाघाट अभिलेख (पुणे, महाराष्ट्र)
- गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख
- गौतमी बलश्री का नासिक गुहालेख
- वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख
- वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख
- यज्ञश्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख
सातवाहन वंश किसी-न-किसी रूप में लगभग तीन शताब्दियों तक बना रहा, जो प्राचीन भारत में किसी एक वंश का सर्वाधिक कार्यकाल है।
SSBYN Education
'मुद हर्ष' धातु में “रक् प्रत्यय लगाकर मुद्रा शब्दं॑ की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ प्रसन्नता देने वाली स्थिति है। धन या रुपये के अर्थ में “मुद्रा' शब्द का प्रयोग भी इसी आशय से किया गया है। कोष में मुद्रा' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। जैसे मोहर, छाप, अंगूठी, चिन्ह, पदक, रुपया, रहस्य, अंगों की विशिष्ट स्थिति (हाथ या मुख की मुद्रा)] नृत्य की मुद्रा (स्थिति) आदि।
यौगिक सन्दर्भ में मुद्रा शब्द को 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' के अर्थ में लिया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है, वह रहस्यमयी ही है। व गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं की जाने वाली विधि है। अतः रहस्य अर्थ उचित है। आसन व प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग करके विशिष्ट स्थिति में बैठकर 'मुद्रा' का अभ्यास किया जाता है। इसलिए इसे अंगों की स्थिति विशेष के रूप में भी लिया जाता है। और इनमें हाथों तथा मुख की विशेष स्थिति को भी सम्मिलित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ जानुशिरासन में बैठकर प्राणायाम तथा बन्धों का प्रयोग करके महामुद्रा का अभ्यास किया जाता है तथा प्राणायाम के अभ्यास के लिए हाथ की विशेष मुद्रा बनाकर नासारन्ध्रों पर ले जानी होती है। अतः उक्त 'रहस्य' तथा “अंगों की विशिष्ट स्थिति' अर्थ उचित है। "मुद्रा' अत्यन्त बहुमूल्य साधन हैं जो कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करके साधक को लक्ष्य तक पहुँचाती है। अतः 'सुवर्ण या धन या रुपया' का भाव भी इसमें निहित है। इसकी बहुमूल्यता निःसन्देह सिद्ध होती है। उपर्युक्त अर्थ के आलोक में मुद्रा की परिभाषा निम्न प्रकार से दी जा सकती है-
- आन्ततरिक भावों को व्यक्त करने की विधा मुद्रा कहलाती है।
- आसन, प्राणायाम की सम्मिलित विशिष्ट स्थिति जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण सम्भव है, मुद्रा कहलाती है।
- आनन्द की प्राप्ति कराने वाली प्रक्रिया मुद्रा है।
- चित्त को प्रकट करने वाले विशेष भाव मुद्रा है।
- मुद्रा आसन की वह विशेष स्थिति जिसमें प्राणायाम सम्मिलित हो या नहीं हो परन्तु जो कुण्डलिनी जागरण में मदद करें वह मुद्रा है।
केवल आसन अथवा केवल प्राणायाम की अपेक्षा यह सम्मिलित अभ्यास शीघ्र फलदायक है। मुद्राओं के अभ्यास से साधक सूक्ष्म शरीर और प्राण शक्ति को नियंत्रित कर लेता है जिससे उसकी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो जाती है तथा साधना में सफलता प्राप्त होती है। साधक अपने प्राणमय और मनोमय कोष को स्वच्छ व निर्मल बना लेता है जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है तथा कुण्डलिनी जागरण व समाधि की स्थिति अनायास प्राप्त हो जाती है।
बंध का अर्थ एवं परिभाषा
बन्ध-बन्धने धातु में घञ प्रत्यय करके बन्ध शब्द बनता है जिसका अर्थ है. बांधना या नियन्त्रित करना। जिस प्रक्रिया के द्वारा शरीर के विभिन्न आन्तरिक अवयवों को बांधकर अथवा नियंत्रित करके साधना में प्रवृति होती है, वह क्रिया बंध कहलाती है। कोषकार अनेक अर्थ करते हैं। जैसे बांधना, कसना, जकड़ना, व्यवस्थित करना, रोकना, हस्तक्षेप करना आदि किन्तु यहाँ पर जिन बन्धों की चर्चा अपेक्षित है, वे शरीर को नियंत्रित करके साधना के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। बन्ध को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
किसी अंग विशेष को बांधकर संवेदनाओं को लक्ष्य विशेष की ओर भेजना बन्ध है।
योग के दृष्टिकोण से बन्ध का प्रयोग प्राणायाम के समय आवश्यक है। इसके द्वारा प्राण को नियंत्रित किया जाता है जिससे यह अनिश्चित जगह न जा सके। जहाँ प्राण पहुँचेगा, उसी अंग पर उसका प्रभाव पड़ेगा। अतः बन्ध का प्रयोग करके प्राण को नियंत्रित करके इच्छित स्थान पर उसको ले जाना संभव हो जाता है। कहा जा सकता है कि शरीर के अंगों को संकुचित करके प्राण को नियंत्रित करने के लिए वृत्तियों को अन्तर्मुखी करने की प्रक्रिया का नाम बन्ध है जिससे आन्तरिक अंग व स्नायु स्वस्थ तथा क्रियाशील होते हैं।
बंध व मुद्रा का उद्देश्य
मुद्राओं व बन्धों का कार्य साधक को साधना पथ पर अग्रसर करना है इन मुद्राओं व बन्धों के प्रयोग से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है जो हठयोगी की साधना का मुख्य उद्देश्य है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक अवयवों को नियंत्रित करके साधक की अन्तःस्रावी तथा बहि:स्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करता है जिनके स्राव से शारीरिक व मानसिक स्थिति सुदृढ़ होती है। मुद्रा के अभ्यास में 'स्थिरता' की बात स्वयं घेरण्ड संहिता में की गई है 'मुद्रया स्थिरता चैव'। स्नायु संस्थान को वशीभूत करके इच्छित ऊर्जा का उत्पादन एवं प्रयोग करके स्थिरता का भाव प्राप्त किया जा सकता है। यह मुद्रा का भाव साधक को अपने गुणों के सदृश ही ढाल लेता है और वह मुद्रा के प्रभाव से प्रभावित होकर साधना पथ पर अग्रसर हो जाता है। इन मुद्राओं के अभ्यास से तंत्रिका तंत्र के द्वारा मस्तिष्क को भेजे जाने वाले संदेश चेतना को जागृत करने में सफल हो जाते हैं।
बन्ध का प्रयोग तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है। गले, उदर अथवा गुदाद्वार पर जो तंत्रिकाएँ कार्यरत हैं, उन्हें सक्रिय करके अवरोध उत्पन्न कर दिया जाए तो प्राण के लिए ऊर्ध्व, अधो या मध्य मार्ग बंद हो जाएंगे और प्राण का सुषुम्ना में गमन होने लगेगा। इस प्रकार बन्ध कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने तथा प्राण पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
मुद्राएँ व बन्ध साधक की बाह्यवृत्ति को समाप्त कर अन्तःवृत्ति को जाग्रत करते हैं, जिससे वह संसार की ओर से विमुख होकर साधना पथ पर बढता रहे। इनके अभ्यास से वीतराग होकर साधक लक्ष्य प्राप्ति के प्रति सजग हो जाता है। ऐसा एकाग्रचित साधक साधकों की श्रेणी में सम्मान का अधिकारी होता है।
स्वामी कुवलयानन्द जी के अनुसार 'मुद्रा तथा बन्ध हठयोग की खास विशेषताएँ है। ये अनेक तंत्रिकापेशीय बन्ध लगाकर किए जाते हैं। इनमें आन्तरिक दबाव से बहुत बड़ी सीमा तक परिवर्तन होते हैं तथा अनेक ग्रंथिस्रावों तथा अन्तःस्रावी ग्रंथियों तथा कुछ तंत्रिका समूहों को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इस प्रकार के यौगिक व्यायाम से पेशाब तथा पाखाने की मात्रा कम हो जाती है (क्षयो मूत्र पुरीषयोः)। खास तौर से मूल तथा उड्डीयान बन्ध के अभ्यास द्वारा जोकि अभ्यासी की योग्यतानुसार विभिन्न प्रकार के उपवातावरणीय दबाव वक्ष तथा पेट गुहा में पैदा करते हैं।
स्वामी निरंजनानन्द की मान्यता है कि “योग शास्त्र में जिन मुद्राओं और बन्धों का वर्णन किया गया है वे तन्त्रिका तंत्र की संवेदनाओं और उत्तेजनाओं को शांत एवं संयत करने में सहायक सिद्ध होती हैं। कुण्डलिनी योग या क्रिया योग में जिन मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है जैसे अश्विनी मुद्रा, वज़्रोली मुद्रा, तड़ागी मुद्रा इत्यादि, उनका प्रभाव प्राणमय कोश पर पड़ता है और वे प्राण के प्रवाह को परिवर्तित करने का प्रयास करती है। उनका प्रभाव मस्तिष्क पर भी पड़ता है और वे चित्त के भीतर भाव विशेष को जाग्रत करने में सहायक होती हैं ताकि हम अन्तर्मुखी हो सकें। बन्धों एवं मुद्राओं का अभ्यास एकाग्रता प्राप्ति में सहायक होता है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार बन्ध के अभ्यास वास्तव में स्नायविक अवरोध हैं आभासी मुद्राएँ तथा शरीर और मस्तिष्क के भीतर जितनी भी तन्त्र तंत्रिकाएँ है, उनमें उत्पन्न हो रही संवेदनाओं को अवरुद्ध कर देते हैं और दूसरे प्रकार की संवेदनाओं को जाग्रत करते हैं। आन्तरिक अंगों में जहाँ भी संकुचन आभासी मुद्राएँ की क्रिया होती है, चाहे गर्दन में हो, चाहे कण्ठ में हो, चाहे जननेन्द्रिय के क्षेत्र में हो या गुदाद्वार के क्षेत्र में हो, वह आन्त्तरिक अंगों से सम्बन्धित प्रक्रियाओं को बदल देती है, संवेगों को बदल देती है। शरीर को एक अन्य प्रकार की उत्तेजनात्मक या शान्त अवस्था में ले जाती है, जिसके कारण आन्तरिक स्थिरता का आभास होता है।'
अतः स्पष्ट होता है कि बन्ध व मुद्राएँ हमें बाह्य या भौतिक जगत् से हटाकर अन्तर्जगत् में ले जाती है। अन्नमय, प्राणमय व मनोमय कोश पर विजय प्राप्त करने के बाद ही विज्ञानमय कोश में पहुँचने की स्थिति होती है। आसन, प्राणामय, बन्ध व मुद्रा के माध्यम से अन्नमय, प्राणमय व मनोमय कोश पर नियंत्रण किया जाना सम्भव है। अतः लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मुद्राओं की उपयोगिता निःसन्देह सिद्ध होती है। कहा गया है-
तस्मात् सर्वप्रयत्रेन प्रबोधयितुमीश्वरीम्।
बहाद्वारमुखे सुसां मुद्राभ्यासं समाचरेत्।। ह-प्र. 3/5
अर्थात् ब्रह्मदार (मूलस्थान) पर सोती हुई कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए सब प्रयत्न करके मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि मुद्राएँ ही कुण्डलिनी को जगाने के लिए एकमात्र सर्वोत्तम उपाय है। इससे मुद्रा के अभ्यास की उपयोगिता सिद्ध होती है।