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मुक्त व्यापार समझौते के मोर्चे पर भारत के लिए कई अवसर
वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के कारण सुस्त होती जा रही है। ऐसी स्थिति में विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी यदि 3-4 फीसदी भी बढ़ती है तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उत्साहजनक होगा। इसी कारण भारत ने मुक्त व्यापार समझौते अर्थात एफटीए पर अपना रुख बदला है। विश्व में अनेक क्षेत्रीय व्यापार समझौते हुए हैं। भारत ने भी 2012 के बाद श्रीलंका, बांग्लादेश, जापान, दक्षिण कोरिया इत्यादि देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। भारत में उद्योग एवं सरकार में अवधारणा बनी कि एफटीए पर पहले के रुख से भारत को लाभ नहीं मिला, बल्कि उद्योग जगत को नुकसान हुआ। यही कारण था कि भारत, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से 2019 में अलग हो गया।
आरसीईपी समझौते को लेकर भारत की आशंका थी कि शुल्क मुक्त चीनी सामान से घरेलू बाजार भर जाएगा। हालांकि आरसीईपी से अलग होने के बावजूद चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा बीते तीन सालों से बढ़ता ही जा रहा है। यही कारण है कि भारत ने एफटीए को लेकर एक अंतराल के बाद अपना रुख बदला है। संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ एफटीए हो चुका है। इस क्रम में ब्रिटेन, कनाडा और यूरोपीय यूनियन से वार्ता विभिन्न चरणों में जारी है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के अनुसार ब्रिटेन के साथ एफटीए वार्ता जल्द पूरी होने वाली है।
भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय कमजोर होती मुद्रा, घटते विदेशी मुद्रा भंडार, तीव्र गति से विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की निकासी, व्यापार घाटे में वृद्धि इत्यादि की समस्याओं से जूझ रही है। ऐसे में निर्यात वृद्धि आवश्यक है। इसके लिए भारत का ग्लोबल वैल्यू चेन यानी जीवीसी से जुडऩा जरूरी है। जीवीसी से संबद्ध होने में एफटीए की विशिष्ट भूमिका है। हमारे व्यापार में एफटीए की हिस्सेदारी वर्ष 2000 में 16 प्रतिशत थी जो अब 18.5 प्रतिशत है। स्पष्ट है कि भारत एफटीए से आशा के अनुरूप लाभ नहीं उठा सका है। हमारे व्यापार में ज्यादा हिस्सेदारी गैर-एफटीए की है, जिसमें अमरीका, चीन विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं और ईयू प्रमुख हैं। हमारे आयात-निर्यात की दृष्टि से अमरीका का महत्त्व बरकरार है, जबकि ईयू का महत्त्व पहले से कम हुआ है। हमें वर्तमान में उपयोगी देशों और क्षेत्रों से संबंधित एफटीए की जरूरत है। हमें वर्तमान में उच्च निर्यात बाजार अमरीका, ईयू और बांग्लादेश पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भविष्य के प्रमुख बाजारों अफ्रीका और लैटिन अमरीकी देशों पर भी ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।
भारत ने 2019 में आरसीईपी से दूरी बनाई, पर अब एशिया पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (आइपीईएफ) में शामिल होने का मौका है, जो हाल ही में बना है। इस समूह में 14 देश शामिल हैं और वैश्विक जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी 28 फीसदी है।
ट्रांस पैसिफिक भागीदारी का नेतृत्व कभी अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा करते थे, परंतु ट्रंप ने इससे दूरी बना ली थी। इस समझौते से अलग रहने का खमियाजा अमरीका भुगत रहा है। उसके व्यापार अवसर छूट रहे हैं और उसका भू-राजनीतिक प्रभाव भी घट रहा है। यही कारण है कि अमरीका ने आइपीईएफ की स्थापना में अति सक्रियता दिखाई। भारत को भी त्वरित तौर पर इसमें शामिल होकर व्यवस्थित और सुसंगठित रूप से अपने व्यापार के एजेंडे को विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं आगे बढ़ाना चाहिए। आइपीईएफ में अमरीका, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और वियतनाम हैं, जो भारत के लिए भी खास हैं। गौरतलब है कि चीन, आइपीईएफ में शामिल नहीं है।
यह कोई विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं संयोग नहीं है कि हमारा बीते दो दशकों में चीन, दक्षिण कोरिया और वियतनाम से कारोबार बढ़ा है। ये विश्व के सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी देश हैं और प्राय: सभी देशों का व्यापार संतुलन का झुकाव इन तीन देशों की तरफ हो गया है। भारत गैर शुल्कीय बाधाओं और अधिक लागत की शिकायत कर सकता है, पर अंतत: प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर ही व्यापार संतुलन को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके लिए एफटीए सबसे बेहतर विकल्प है।
कई वैश्विक निवेशक ‘चाइना प्लस वन’ की रणनीति अपना रहे हैं। जाहिर है इससे भारत को भी लाभ होगा, क्योंकि ये निवेशक चीन से बाहर वियतनाम, थाईलैंड, भारत जैसे देशों में फैक्ट्री लगाना चाहते हैं। चीन-अमरीका ‘ट्रेड वार’ के समय भी भारत के लिए स्वर्णिम अवसर उपलब्ध थे, पर उनका समुचित लाभ नहीं उठाया जा सका था। वैश्विक भागीदारी से मूल्य संवर्धन के साथ रोजगार के अवसर भी बनेंगे। ‘चाइना प्लस वन’ से उत्पन्न हुए अवसर हमेशा नहीं रहेंगे। इसलिए भारत के लिए आवश्यक है कि वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार में खुलेपन के सिद्धांतों तथा प्रतिस्पर्धी बनने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए। भारत का विकास मुख्य रूप से उत्पादन और सेवा के क्षेत्र में वैश्विक प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है।
Explainer: रुपये में ग्लोबल ट्रेड की मंजूरी से क्या डॉलर के दबदबे पर कोई फर्क पड़ेगा? भारत को कैसे होगा फायदा
Rupees vs Dollar: RBI का कहना है कि ग्लोबल ट्रेड ग्रोथ में भारत से एक्सपोर्ट को प्रमोट करने और ग्लोबल कारोबारी कम्युनिटी का रुपये में बढ़ते इंटरेस्ट को सपोर्ट करने के लिए यह कदम उठाया गया है.
रिजर्व बैंक रुपये में इंटरनेशनल ट्रेड सेटलमेंट के लिए मैकेनिज्म लेकर आया है. (Representational Image)
RBI big move on Indian Rupees: भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने एक बड़ा कदम उठाते हुए विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं रुपये में विदेशी व्यापार करने की इजाजत दे दी है. रिजर्व बैंक रुपये में इंटरनेशनल ट्रेड सेटलमेंट के लिए मैकेनिज्म लेकर आया है, जिसके तहत अब एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का सेटलमेंट रुपये में हो सकेगा. RBI ने नोटिफिकेशन जारी कर इसकी डीटेल जानकारी दी है. आरबीआई का कहना है कि ग्लोबल ट्रेड ग्रोथ में भारत से एक्सपोर्ट को प्रमोट करने और ग्लोबल कारोबारी कम्युनिटी का रुपये में बढ़ते इंटरेस्ट को सपोर्ट करने के लिए यह कदम उठाया गया है. रिजर्व बैंक के इस कदम के बाद अहम सवाल यह भी है कि क्या रुपये में विदेशी व्यापार की मंजूरी का अमेरिकी डॉलर की पोजिशन पर कुछ फर्क पड़ेगा? साथ ही इस कदम से भारत के ट्रेड को कैसे फायदा होगा.
बना रहेगा डॉलर का दबदबा
आनंद राठी सिक्युरिटीज के चीफ इकोनॉमिस्ट सुजान हजरा का कहना है, रिजर्व बैंक के इस कदम से नियर टर्म में भारत को फॉरेन एक्सचेंज की कमी झेल रहे कई इमर्जिंग देशों के साथ व्यापार करने में सहूलियत होगी. साथ ही यह उस प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसके अंतर्गत भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रुपये को एक महत्वपूर्ण करेंसी बनाने की कोशिश कर रहा है. जहां तक बात डॉलर के दबदबे को लेकर है, तो इस कदम से हाल-फिलहाल फॉरेन ट्रेड के लिए प्रमुख करेंसी के रूप में अमेरिकी डॉलर की पोजिशन में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं है.
उनका कहना है, यह कदम ट्रेड पार्टनर्स के बीच भारतीय रुपये की स्वीकार्यता बढ़ाने की प्रक्रिया का हिस्सा है. हाल के दिनों में हमने चीन की ओर से अपनी करेंसी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए अलग-अलग उपायों को देखा है. इस तरह की पहल के जरिए भारत भी यही कोशिश कर रहा है.
HDFC बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट अभीक बरूआ का कहना है, रुपये को इंटरनेशल ट्रेड सेटलमेंट की मंजूरी से डॉलर की पोजिशन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. भारतीय रुपये में अभी इतनी ताकत नहीं है कि वह इंटरनेशनल पेमेंट को ज्यादा प्रभावित कर सके. इससे पहले, चीन ने भी यह कोशिश की है, लेकिन वो भी बहुत सफल नहीं हुआ.
बरूआ का कहना है, यूरो जैसी मजबूत करेंसी में भी इंटरनेशनल ट्रेड की ज्यादा बिलिंग अभी नहीं होती है. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि इसका ज्यादा फर्क पड़ेगा. इस मूव का फायदा यह होगा कि हम रूस और कुछ अन्य ट्रेड पार्टनर के साथ घरेलू करेंसी में ट्रेड कर सकेंगे. इसे हमें डॉलर डॉमिनेंस से नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि इसका कोई असर नहीं होगा.
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RBI के इस मैकेनिज्म से भारत को क्या लाभ?
सुजान हजरा कहते हैं, हाल के समय में कुछ इमर्जिंग मार्केट फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व की कमी से जूझ रहे हैं, ऐसे में इन देशों के साथ भारत का व्यापार प्रभावित हो सकता है. आरबीआई की ओर से रुपये में इंटरनेशनल ट्रेड सेटलमेंट को मंजूरी दिए जाने से कुछ हद तक स्थिति में बदलाव आ सकता है. बायलेटरल ट्रेड बैलेंस के नेट सेटलमेंट का एक मैकेनिज्म आने वाले समय में इस प्रक्रिया को और सुविधाजनक बना सकता है. उनका कहना है, विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं रुपये में इनवॉयस और पेमेंट से ट्रांजैक्शन कॉस्ट और फॉरेन करेंसी में ट्रांजैक्शन से जुड़े मार्केट रिस्क भी कम होंगे.
अभीक बरूआ का कहना है, आरबीआई के इस कदम से कई सारे देशों के साथ ट्रेड भारतीय करेंसी में हो सकते हैं. जैसे, अभी रूस में डॉलर पेमेंट पर रोक लगी है. ऐसे में अगर रुपये में सेटलमेंट शुरू होता है, तो इस तरह के रिस्क वाले काफी ट्रेड आसानी से हो सकते हैं. इस मैकेनिज्म के बाद भारत- रूस के साथ ट्रेड सेटलमेंट में दिक्कत नहीं होगी.
क्या है RBI का मैकेनिज्म?
RBI के नोटिफिकेशन के मुताबिक, रुपये में इंटरनेशनल ट्रेड सेटलमेंट के लिए ऑथराइज्ड डीलर (AD) को RBI से अनुमति लेनी होगी. विदेशी मुद्रा अधिनियम कानून 1999 के तहत रुपये में इनवॉयस की व्यवस्था होगी. जिस देश के साथ कारोबार होगा, उसकी मुद्रा और रुपये की कीमत बाजार आधारित होगी.
नोटिफिकेशन के मुताबिक, रुपये में भी सेटलमेंट के नियम दूसरी करेंसीज की तरह ही विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं होंगे. एक्सपोर्टर्स को रुपये की कीमत में मिले इनवॉयस के बदले एडवांस भी मिल सकेगा. वहीं, कारोबारी लेनदेन के बदले बैंक गारंटी के नियम भी FEMA (Foreign Exchange Management Act- 1999) के तहत कवर होंगे. नोटिफिकेशन के मुताबिक, ट्रेड सेटलमेंट के लिए संबंधित बैंकों को पार्टनर कारोबारी देश के AD बैंक के स्पेशल रुपया वोस्ट्रो (VOSTRO) अकाउंट की जरूरत होगी.
विनिमय दर और विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन
अमेरिकी डॉलर के बरअक्स भारतीय रुपये की विनिमय दर की बात करें तो कहा जा सकता है कि चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वे पहले जैसी बनी रहती हैं। चंद छोटे अंतरालों को छोड़ दिया जाए तो डॉलर के मुकाबले रुपये की प्रभावी वास्तविक विनिमय दर काफी हद तक अधिमूल्यित रही है। सितंबर 1949, जून 1966 और जुलाई 1991 में रुपये का क्रमश: 30.5, 57 और 19.5 फीसदी अवमूल्यन हुआ था।
सन 1949 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन इसलिए हुआ कि दूसरे विश्वयुद्ध के बजाय पाउंड स्टर्लिंग, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ था। सन 1950 के दशक से ही अक्सर घरेलू हितों को ध्यान में रखते हुए रिजर्व बैंक और भारत सरकार ने अधिमूल्यित रुपये का समर्थन किया। अभी हाल ही में अमेरिका, यूरोप, जापान और यूनाइटेड किंगडम के केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरों को लंबे समय तक काफी कम रखा और वास्तविक ब्याज दरें 2008 के बाद लंबे समय के लिए ऋणात्मक हो गईं।
वर्ष 2022 में कई प्रमुख केंद्रीय बैंकों द्वारा मानक दरों में तेज इजाफा किए जाने की बदौलत यह रुझान पलट गया। आरबीआई ने भी उच्च उपभोक्ता मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के लिए ऐसा किया। इस आलेख में हम इस विषय पर बात करेंगे कि रिजर्व बैंक को किस हद तक विदेशी मुद्रा भंडार रखना चाहिए और उसके क्या निहितार्थ होंगे। एक बार जब अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में काफी इजाफा कर दिया गया तो यह लाजिमी था कि यूरोपियन केंद्रीय बैंक, बैंक ऑफ इंगलैंड आदि का विदेशी मुद्रा भंडार कम होता। भारत में उनके निवेश के कारण रुपये पर भी दबाव बढ़ा।
रिजर्व बैंक रुपये में किसी भी तरह के तेज इजाफे या गिरावट को कम करना चाहता है ताकि घरेलू और विदेशी निवेशकों को वास्तविक अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रतिभूतियों में स्थिर माहौल मुहैया कराया जा सके। इसमें अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र को लगने वाला झटका शामिल है।
मिसाल के तौर पर कोविड-19 महामारी और बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के केंद्रीय बैंकों और सरकारों की ओर से ब्याज दरें बढ़ाने के फैसले तथा वित्तीय क्षेत्र में लिए जाने वाले अस्वाभाविक निर्णय। इसका अर्थ यह होगा कि भारत के पास विदेशी मुद्रा का भारी भरकम भंडार होना चाहिए ताकि घरेलू अर्थव्यवस्था, वस्तु एवं सेवा व्यापार, बाहरी मुद्रा में लिए जाने वाले कर्ज और विभिन्न प्रत्यक्ष एवं पोर्टफोलियो विदेशी निवेश आदि को लेकर सही कदम उठाए जा सकें।
फिलहाल भारत का विदेशी मुद्रा भंडार करीब 530 अरब डॉलर का है जो एक वर्ष पहले के 640 अरब डॉलर से कम है। बहरहाल, यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि मुद्रा भंडार में आई 110 अरब डॉलर की कमी का 67 फीसदी इसलिए आया क्योंकि यूरो, पाउंड स्टर्लिंग और येन जैसी विदेशी मुद्राओं में रखी गयी सरकारी ऋण प्रतिभूतियों के दाम कम हुए क्योंकि ये मुद्राएं भी डॉलर के संदर्भ में तेजी से गिरीं।
जो ऋण योजनाएं रुपये में थीं उन पर नॉमिनल ब्याज दर जी 7 देशों की मुद्राओं में कम ब्याज दर की तुलना में काफी अधिक थी। ऐसी स्थिति में भारत में कुल कारक उत्पादकता अमेरिका अथवा पश्चिमी यूरोप की तुलना विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं में उस स्थिति में अधिक होती जब कि रुपये में गिरावट नहीं आती। जैसा कि हम जानते हैं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में सटोरिया कारोबार करने वाले विनिमय दर को लेकर सौदेबाजी कर सकते हैं क्योंकि भारतीय रुपये तथा अन्य विकसित देशों की मुद्राओं के बीच ब्याज दर में अंतर है।
अमेरिकी सरकार उन देशों को कनखियों से देख रही है जिनका चालू खाते का अधिशेष सकल घरेलू उत्पाद के दो फीसदी या उससे अधिक है। अमेरिकी सरकार इस बात के एकदम खिलाफ है कि केंद्रीय बैंक डॉलर में विदेशी मुद्रा का अतिरिक्त भंडार तैयार करके विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं रखें। चीन द्वारा चालू खाते का भारी भरकम अधिशेष तैयार करने के बाद से ही अमेरिका ने ऐसे प्रयास शुरू किए हैं। अप्रैल 2021 में अमेरिकी वित्त विभाग की अर्द्धवार्षिक रिपोर्ट में भारत को उन देशों की सूची में शामिल किया गया जिनके बारे में आशंका थी कि वे मुद्रा के साथ जानबूझकर छेड़छाड़ कर रहे हैं।
रुपये के अधिमूल्यन को लेकर भारतीय आयातकों के साथ-साथ विदेश से पैसा भेजने वालों और संस्थागत विदेशी निवेशकों की भी रुचि रही है। रुपये में अधिमूल्यन की प्रवृत्ति इसलिए भी है क्योंकि घरेलू स्तर पर नॉमिनल ब्याज दर अधिक है और यही वजह है कि जब भी अवसर मिला डॉलर को चरणबद्ध ढंग से एकत्रित करके रुपये को गिरने दिया गया।
इस दौरान घरेलू विदेशी मुद्रा भंडार के साथ किसी तरह की छेड़खानी नहीं की गई। खासतौर पर डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर में आने वाली चरणबद्ध गिरावट की बात करें तो 2013 के टैपर टैंट्रम (अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा अचानक बॉन्ड खरीद कम करने पर निवेशकों द्वारा दी जाने वाली प्रतिक्रिया) के बाद इसे 10 पैसे प्रति माह होना चाहिए था।
इससे संबद्ध एक बात यह है कि चूंकि डॉलर के अगले कम से कम 10 वर्ष तक दबदबे वाली आरक्षित मुद्रा बने रहने की संभावना है इसलिए डॉलर, यूरो, पाउंड स्टर्लिंग, येन और चीन की रेनमिनबी के रूप में छह मुद्राओं वाली वास्तविक प्रभावी विनिमय दर के रुपये के बरअक्स आकलन में डॉलर को तवज्जो मिलनी चाहिए।
अब तक मूडीज ने भारत को बीएए3 की रेटिंग दी है जो निवेश श्रेणी की है विदेशी मुद्रा व्यापार के क्या लाभ हैं और विदेशी संस्थागत निवेशक भी देश की रेटिंग को तवज्जो देने के नियमों से बंधे हैं। इस संदर्भ में देखें तो 2022-23 में चालू खाते का घाटा जीडीपी के 3.5 फीसदी के बराबर रह सकता है और भारतीय खुदरा मूल्य मुद्रास्फीति सितंबर 2022 में 7.4 फीसदी थी। भारत की जीडीपी में अगर तेज वृद्धि होती है तो विदेशी निवेशकों की चिंताएं दूर हो जाएंगी लेकिन 2022-23 के वृद्धि अनुमान करीब 6.5 फीसदी के हैं और नामुरा के मुताबिक 2023-24 में यह आंकड़ा कम होकर 5.2 फीसदी तक आ सकता है।
गत 25 अक्टूबर को ब्रेंट क्रूड का एक बैरल 93 डॉलर का था और यूक्रेन संकट के साथ जुड़ी अनिश्चितता के बरकरार रहने तक यह उसी स्तर पर बना रह सकता है। भारत के अल्पावधि के ऋण की बात करें तो एक वर्ष से कम की परिपक्वता वाला ऋण मार्च 2022 तक 267.7 अरब डॉलर मूल्य का था।
सभी विदेशी मुद्राओं के वर्तमान और अनुमानित भंडार समेत तमाम बातों पर विचार करते हुए तथा वस्तु व्यापार घाटे को ध्यान में रखते हुए यह कहना समझदारी होगी कि भारत को दिसंबर 2024 तक अपना विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाकर करीब 700 अरब डॉलर के स्तर तक ले जाना चाहिए।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)
विदेशी व्यापार किसे कहते हैं इसका क्या महत्व है ?
मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं। कुछ आवश्यकता की वस्तुए तो देश में ही प्राप्त हो जाती है तथा कुछ वस्तुओं को विदेशों से मंगवाना पड़ता है। भोगोलिक परिस्थितियों के कारण प्रत्येक देश सभी प्रकार की वस्तुए स्वयं पैदा नहीं कर सकता है। किसी देश में एक वस्तु की कमी है तो दूसरे देश में किसी दूसरी वस्तु की। इस कमी को दूर करने के लिए विदेशी व्यापार का जन्म हुआ है।
दो देशों के मध्य होने वाले वस्तुओं के परस्पर विनिमय या आदान’-प्रदान को विदेशी व्यापार कहते हैं। जो देश माल भजेता है उसे निर्यातक एवं जो देश माल मंगाता है उसे आयातक कहते हैं एवं उन दोनों के बीच होने वाल े आयात-निर्यात को विदेशी व्यापार कहते हैं।